लव जिहाद वास्तविकता और दुष्प्रचार
बीकानेर: पिछले कई दिनों से बीकानेर में या पूरे मुल्क में एक प्रेमी युगल के विवाह को लेकर एक शोर सा मचा हुवा है, कोई इसे इस्लाम धर्म से जोड़ कर लव जिहाद का इल्ज़ाम लगाकर नफरत की सियासत कर रहे हैं तो कोई इसे सिर्फ प्रेम से जोड़ रहा है, जमीअत उलमा ए हिन्द की बीकानेर यूनिट के महासचिव मौलाना मोहम्मद इरशाद क़ासमी ने इस पर प्रेस रिलीज़ जारी करते हुए बताया कि इस्लाम धर्म मे दूसरे धर्म के लोगों से विवाह किया जा सकता है या नही??
ऐसे ही लव जिहाद को लेकर जो बातें की जाती है क्या इस्लाम में इसकी गुंजाइश है??? ऐसी ही कई बातों को लेकर
क़ासमी ने बताया कि
अल्लाह तआला ने मनुष्य की प्रकृति कुछ इस प्रकार रखी है कि वह प्यार का भूखा है इसलिए उसे खुशी के वातावरण में ऐसे लोगों की तलाश रहती है जो उसकी खुशी साझा कर सकें, यह भागीदारी उसकी खुशी को दोगुना कर देती है। जिस प्रकार एक दुःख निवारक व्यक्ति की उपस्थिति उसके दुःख को कम कर देती है। यह प्यार अधिकतर उन्हीं रिश्तों से प्राप्त होता है जो स्वाभाविक हैं और जिसपर कोई नियंत्रण नहीं होता और एक रिश्ता ऐसा भी है जो व्यक्ति अपनी मर्ज़ी और पसंद से बनाता है, यह है विवाह का सम्बंध, विवाह के बंधन में बंधे पुरुषों और महिलाओं के परिवार का एक क्षेत्र और एक भाषा से संबंध होना आवश्यक नहीं, कई बार पूरी तरह से अजनबियों के बीच यह संबंध स्थापित हो जाता है लेकिन यह रिश्ता प्यार और स्नेह को जन्म देता है जिसकी गहराई अधिकतर अन्य सभी रिश्तों से बढ़ जाती है। पुराने रिश्ते नए रिश्ते की तुलना में हल्के हो जाते हैं। यह रिश्ता इतना महत्वपूर्ण है कि दोनों पक्षों का भविष्य मृत्यु तक तक एक-दूसरे से जुड़ा रहता है। ये एक दूसरे के माध्यम से माता-पिता बन जाते हैं और आपसी सहयोग से अपनी सन्तानों का पालन पोषण करते हैं। कुछ समय के लिए वे एक-दूसरे के लिए एक सुनहरा स्वप्न थे और अब साथ में वे अपनी अगली पीढ़ी के लिए स्वप्न देखते हैं। इसीलिए निकाह के संबंध में दोनों पक्षों के बीच अधिकतम सामंजस्य होना चाहिए, यह सामंजस्य संबंध को स्थायी बनाता है। जो लोग सामयिक तौर पर किसी पर दिल फेंक देते हैं और इसी आधार पर निकाह के बन्धन में बंधते हैं सामान्यतः ऐसे रिश्ते में स्थिरता नहीं रहती है। सद्भाव के लिए आवश्यक शर्त, विचार और मान्यताओं का भी सामंजस्य है। सोचें कि यदि कोई व्यक्ति अल्लाह को एक मानता है और अल्लाह के अलावा किसी के सामने अपना माथा रखना सबसे बड़ा अपराध मानता हो, उसका उस व्यक्ति के साथ चौबीस घंटे के जीवन में कैसे सामंजस्य हो सकता है जो सैंकड़ों जीवधारियों का पुजारी हो। जब दोनों के धार्मिक त्योहार आएंगे तो यदि वह अपनी विचारधारा में गंभीर और सच्चा हो तो उनके बीच संघर्ष नहीं होगा? जब बच्चों की शिक्षा और प्रशिक्षण और उनके धार्मिक जुड़ाव की बात आएगी तो क्या तनाव की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी? अवश्य होगी; इसीलिए इस्लाम में जो चीज़ें निकाह में बाधा मानी गयी हैं उनमें “दीन (धर्म) का अंतर” भी है।
इसके विवरण को तीन बिंदुओं में समेटा जा सकता है, पहला यह कि एक मुस्लिम लड़की किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़के से शादी नहीं कर सकती है, चाहे वह यहूदी या ईसाई या बहुदेववादी हो और कारण स्पष्ट है कि एक महिला के लिए विपरीत माहौल में अपने ईमान का बचाव करना मुश्किल हो जाएगा। दूसरा, एक मुस्लिम पुरुष एक यहूदी और ईसाई महिला के अलावा किसी भी ग़ैर-मुस्लिम महिला से शादी नहीं कर सकता, स्पष्ट है कि इसमें हिंदू महिलाएं भी शामिल हैं। तीसरा, एक मुस्लिम पुरुष एक यहूदी या एक ईसाई महिला से शादी कर सकता है लेकिन इस संबंध में दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए। एक, यह कि यहूदी और ईसाई होने का मतलब यह नहीं है कि उसने सरकार के जनगणना कॉलम में यहूदी या ईसाई लिखा हो जैसा कि आज पश्चिमी लोग करते हैं; बल्कि आवश्यक है कि वह वास्तविक रूप से यहूदी और ईसाई हो अर्थात् वह अल्लाह पर, नबुव्वत पर, इल्ह़ामी किताब पर और आख़िरत की व्यवस्था पर ईमान रखती हो, दूसरे यद्यपि यहूदी और ईसाई महिलाओं से निकाह की गुंजाइश है लेकिन यह कुरूपता (कराहत) से रहित नहीं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मुशरिक (शिर्क करने वाला) पुरुष से मुसलमान महिला का या मुशरिक महिला से मुस्लिम पुरुष का निकाह (विवाह) नहीं हो सकता, दुर्भाग्यवश इस ज्ञानवर्धक तथ्य के बावजूद इस समय साम्प्रदायिक शक्तियों ने “लव जिहाद” के अफ़साने को छेड़ रखा है, यदि इस्लाम इस बात से सहमत होता और मुसलमान निकाह को इस्लाम फैलाने का साधन बनाना चाहते तो गैर-मुस्लिम क़ौमों के साथ विवाह निषिद्ध नहीं होता बल्कि प्रोत्साहित किया जाता जैसा कि आज कल ईसाई धर्म में किया जाता है; बल्कि इस्लाम में तो यह बात वांछनीय नहीं है कि कोई पुरुष अथवा महिला इस्लाम स्वीकार करे कि उसकी अमुक पुरुष से शादी हो जाए, अल्लाह को राज़ी करना और हिदायत (मार्गदर्शन) प्राप्त करना उसका उद्देश्य न हो।
भारत में मुसलमानों ने हमेशा ह़लाल और ह़राम की सीमाओं को बनाए रखा है और धर्मनिष्ठ (दीनदार) मुसलमानों ने कभी भी ग़ैर-मुस्लिम लड़कियों को शादी में अपनाने की कोशिश नहीं की। कुछ लोग अकबर की जोधाबाई से विवाह का उल्लेख करते हैं लेकिन यह राजपूतों की सहमति पर आधारित था और अकबर कोई विद्वान अथवा दीनदार मुसलमान नहीं था कि उसके कृत्य को मुसलमानों के सिर पर थोपा जाए। सच्चाई यह है कि अगर कोई लड़का या लड़की स्वविवेक से एक धर्म को स्वीकार कर ले और अपने ही धर्म के व्यक्ति से शादी करना चाहे तो हमारे देश का क़ानून इसकी अनुमति प्रदान करता है और इसे धर्मांतरण के लिए विवाह नहीं कहा जा सकता और यदि वर्तमान मिश्रित वातावरण में कोई व्यक्ति किसी अन्य धर्म की लड़की या लड़के के साथ रिश्ता करना चाहता है तो इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है और कम से कम भारत में ऐसी घटनाएं लंबे समय से होती आयी हैं और अभी भी हो रही हैं, इसका उदाहरण खुद महात्मा गांधी के परिवार में पाया जाता है।
आश्चर्यजनक बात है कि जिस साम्प्रदायिक समूह ने इस मिथक को राई से पहाड़ में परिवर्तित कर दिया है उनके घरों में ऐसी घटनाएं अधिक होती रही हैं। भाजपा के कई शीर्ष नेताओं की बेटियों अथवा बहनों ने अपनी सहमति से मुसलमानों से शादी की है। ऐसी भी उदाहरण हैं जहाँ कुछ ग़ैर-मुस्लिम पुरुषों ने मुस्लिम महिलाओं से शादी रचायी है और ऐसे भी उदाहरण हैं जहां प्यार में एक मुस्लिम प्रेमी ने हिंदू महिला से शादी करने के लिए इस्लाम धर्म को भी त्याग दिया है, फ़िल्मी दुनिया में इसके कई उदाहरण पाए जाते हैं। इस प्रकार के विवाह धार्मिक भावना से नहीं होते बल्कि मनोवैज्ञानिक भावनाओं के प्रभाव में होते हैं, इसमें हिंदू और मुसलमानों के बीच कोई अंतर नहीं है। ऐसी घटनाओं को “लव जिहाद” कहना झूठ और धोखे के आधार पर अपने राजनीतिक स्तर को बढ़ाना है।
विद्वानों और उपदेशकों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे नई पीढ़ी के मुसलमानों को विवाह की इस्लामी अवधारणाओं के बारे में शिक्षित करें और ऐसी घटनाओं के रोकथाम के लिए प्रयास करें जिसमें एक मुस्लिम लड़का किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़की से शादी कर लेता है या मुसलमान लड़की ग़ैर-मुस्लिम लड़के के साथ शादी के बंधन में बंध जाती है। यह पाप का जीवन है, शरीयत की दृष्टि में यह शादी है ही नहीं इससे समाज की शांति व्यवस्था भी भंग होती है। हाँ यदि कोई हिंदू लड़का या लड़की वास्तव में इस्लाम में सच्चे दिल से धर्मान्तरित होते हैं तो निश्चित रूप से एक मुस्लिम लड़के और लड़की को शरीयत के अनुसार उससे शादी करनी चाहिए और उसे अपने परिवार का हिस्सा बनाना चाहिए, यह शरीयत का आदेश भी है और हमारे देश का क़ानून भी इसकी अनुमति देता है।
मौलाना मोहम्मद इरशाद क़ासमी
महासचिव जमीअत उलमा बीकानेर राजस्थान। रिपोर्टर सैय्यद अलताफ हूसैन