क्या अदालतें मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 के प्रावधानों के तहत मध्यस्थता फैसलों को संशोधित कर सकती हैं? इस अहम कानूनी मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट ने पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया है। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने इस विवादास्पद मुद्दे पर स्पष्टता की आवश्यकता पर जोर दिया।
मामला गायत्री बालासामी बनाम आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड के वाद से उठा। अधिनियम की धारा 34 में प्रक्रियागत अनियमितताओं, सार्वजनिक नीति के उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र की कमी जैसे सीमित आधारों पर मध्यस्थता फैसलों को रद्द करने का प्रावधान है। अदालतों ने पारंपरिक रूप से इस धारा की संक्षिप्त व्याख्या की है और मध्यस्थता के सिद्धांतों को कायम रखने के लिए फैसलों के गुण-दोष की समीक्षा से परहेज किया है।
धारा 37 मध्यस्थता से संबंधित आदेशों के विरुद्ध अपील को नियंत्रित करती है, जिसमें निर्णय को रद्द करने से इनकार करने के आदेश भी शामिल हैं। धारा 34 की तरह इसका उद्देश्य भी न्यायिक हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है और निगरानी की आवश्यकता वाले असाधारण मामलों पर विचार करना है।
सीजेआई ने प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल की दलीलों पर गौर करने के बाद मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेज दिया। किरपाल ने दलील दी कि इस मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ को भेजना ठीक होगा, क्योंकि पहले तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ही इस मामले पर विचार किया था।